कोदो की खेती कैसे करें – संपूर्ण विवरण
कोदो (Paspalum scrobiculatum) एक पारंपरिक अनाज है, जिसकी खेती भारत के शुष्क और कम बारिश वाले क्षेत्रों में की जाती है। यह मोटा अनाज अत्यधिक पौष्टिक होता है और इसमें प्रोटीन, फाइबर, मिनरल्स और विटामिन की भरपूर मात्रा होती है। कोदो की खेती मुख्य रूप से कम उपजाऊ भूमि पर की जाती है और इसे गरीब किसानों के लिए एक महत्वपूर्ण फसल माना जाता है। इसके पौष्टिक गुणों और स्वास्थ्य लाभों के कारण इसकी मांग धीरे-धीरे बढ़ रही है।
Table of Contents
इस लेख में हम कोदो की खेती से जुड़ी पूरी जानकारी, जैसे जलवायु, भूमि, बीज उपचार, बुवाई, उर्वरक, सिंचाई, निराई-गुड़ाई, कटाई और भंडारण के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे। साथ ही, कोदो के आर्थिक और स्वास्थ्य लाभों पर भी प्रकाश डालेंगे।
1. कोदो की खेती के लिए आवश्यक जलवायु और मिट्टी
जलवायु:
कोदो की खेती के लिए उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय जलवायु सबसे उपयुक्त मानी जाती है। यह फसल मुख्य रूप से शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में उगाई जाती है। कोदो एक ऐसे अनाज के रूप में जाना जाता है, जो कम बारिश और कठिन जलवायु में भी अच्छी तरह पनप सकता है। यह फसल 400 से 1000 मिमी वर्षा वाले क्षेत्रों में उगाई जा सकती है। कोदो की खेती सामान्यत: खरीफ (मानसून) के मौसम में की जाती है, क्योंकि इसे बढ़ने के लिए गर्म और आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है। हालाँकि, यह सर्दियों (रबी) में भी उन क्षेत्रों में उगाया जा सकता है जहाँ सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है।
मिट्टी:
कोदो की खेती के लिए दोमट मिट्टी, बलुई मिट्टी, और लाल मिट्टी सबसे उपयुक्त होती है। कोदो एक ऐसी फसल है, जो कम उपजाऊ और क्षारीय मिट्टी में भी अच्छी तरह उग सकती है। इसके लिए मिट्टी का pH स्तर 5.5 से 6.5 के बीच होना चाहिए। अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी इसके लिए उपयुक्त होती है, क्योंकि कोदो की जड़ें पानी में अधिक समय तक रहने से सड़ सकती हैं। इसलिए, यह सुनिश्चित करें कि खेत में पानी का जमाव न हो।
2. कोदो की खेती के लिए भूमि की तैयारी
जुताई और समतलीकरण:
कोदो की खेती के लिए खेत की अच्छी तरह से जुताई जरूरी होती है। पहली जुताई के समय मिट्टी को गहरी जुताई से पलटें और फिर दूसरी बार जुताई करके मिट्टी को भुरभुरा बना लें। मिट्टी को अच्छी तरह से तोड़कर छोटे-छोटे ढेलों में बदलें। इसके बाद खेत को समतल करें ताकि जल निकासी की समस्या न हो और खेत में नमी बनी रहे। खेत में समतल बीज बिस्तर तैयार करने से बीजों का अंकुरण बेहतर होता है और पौधों की वृद्धि में सहूलियत होती है।
खाद डालना:
भूमि की तैयारी के समय गोबर की खाद या कम्पोस्ट का उपयोग करके मिट्टी की उर्वरता बढ़ानी चाहिए। प्रति हेक्टेयर 10-12 टन गोबर की खाद डालना फायदेमंद होता है। जैविक खाद का प्रयोग मिट्टी की संरचना को सुधारता है और उसे लंबे समय तक उपजाऊ बनाए रखता है।
3. बीज की तैयारी और बुवाई
बीज का चयन और उपचार:
कोदो की बुवाई से पहले उच्च गुणवत्ता वाले बीज का चयन करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। स्वस्थ और रोग-मुक्त बीज अच्छे उत्पादन की गारंटी देते हैं। बीजों को बुवाई से पहले जैविक उपचार देना चाहिए ताकि बीज रोगों और फफूंद से सुरक्षित रहें। बीज को ट्राइकोडर्मा या बाविस्टिन जैसे जैविक उपचार से उपचारित किया जा सकता है। बीज उपचार से अंकुरण बेहतर होता है और पौधों की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है।
बीज की मात्रा:
कोदो की बुवाई के लिए प्रति हेक्टेयर 8-10 किलोग्राम बीज पर्याप्त होते हैं। बुवाई के समय बीज को 2-3 घंटे तक पानी में भिगोना चाहिए, इससे बीज का अंकुरण अच्छा होता है।
बुवाई का समय और विधि:
कोदो की बुवाई का सबसे उपयुक्त समय मानसून की शुरुआत (जून-जुलाई) होता है। बुवाई के समय यह ध्यान देना चाहिए कि खेत में पर्याप्त नमी हो। यदि सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो, तो फरवरी-मार्च के दौरान भी बुवाई की जा सकती है। बुवाई की विधि के तौर पर दो प्रमुख विधियाँ अपनाई जाती हैं:
- छिटकव विधि: इस विधि में बीजों को खेत में समान रूप से छिड़क दिया जाता है। हालांकि, इस विधि से पौधों के बीच पर्याप्त दूरी नहीं रह पाती है, जिससे निराई-गुड़ाई और फसल की देखरेख में कठिनाई होती है।
- लाइन से बुवाई: इस विधि में बीजों को पंक्तियों में बोया जाता है, जिससे पौधों के बीच 20-25 सेमी की दूरी रहती है। लाइन से बुवाई करने पर पौधों के बीच उचित स्थान बनता है, जिससे उन्हें बढ़ने के लिए पर्याप्त जगह मिलती है और पैदावार भी बेहतर होती है।
बीज की गहराई:
बुवाई के समय बीज को 2-3 सेमी की गहराई पर बोना चाहिए और हल्की मिट्टी से ढक देना चाहिए। अत्यधिक गहराई पर बीज बोने से अंकुरण में कठिनाई हो सकती है।
4. कोदो की सिंचाई और जल प्रबंधन
कोदो की खेती ज्यादातर वर्षा आधारित होती है, लेकिन यदि बारिश कम हो या देरी से हो तो बुवाई के बाद 1-2 सिंचाई की आवश्यकता होती है। बुवाई के समय और फसल के फूल आने के समय सिंचाई अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। फूलों के समय पानी की कमी से उपज में भारी गिरावट आ सकती है। पानी की उचित आपूर्ति के बिना फसल की वृद्धि रुक जाती है और उत्पादन प्रभावित होता है।
जल निकासी:
कोदो की फसल में जल निकासी की व्यवस्था भी महत्वपूर्ण होती है। अत्यधिक पानी के कारण पौधों की जड़ें सड़ सकती हैं और फसल खराब हो सकती है। इसलिए, खेत में पानी का जमाव न होने दें और जल निकासी की उचित व्यवस्था करें।
5. कोदो की खेती में उर्वरक और पोषक तत्व प्रबंधन
जैविक खाद:
कोदो की खेती में जैविक खाद का उपयोग करना अधिक लाभकारी होता है। जैविक खाद, जैसे कि गोबर की खाद या कम्पोस्ट, मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाने के साथ-साथ उसे स्वस्थ भी बनाती है। इससे भूमि की जलधारण क्षमता बढ़ती है और पौधों को आवश्यक पोषक तत्व प्राप्त होते हैं।
रासायनिक उर्वरक:
अगर आप रासायनिक उर्वरक का उपयोग कर रहे हैं, तो खेत में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटाश का उचित मात्रा में प्रयोग करना चाहिए। सामान्यत: प्रति हेक्टेयर 40 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20 किलोग्राम फॉस्फोरस और 20 किलोग्राम पोटाश देना चाहिए। नाइट्रोजन को दो बार देना चाहिए: पहली बार बुवाई के समय और दूसरी बार टिलरिंग अवस्था में।
6. कोदो की निराई-गुड़ाई और खरपतवार नियंत्रण
निराई-गुड़ाई:
कोदो की फसल में निराई-गुड़ाई बहुत जरूरी होती है, क्योंकि शुरुआती अवस्था में पौधों को खरपतवार से कड़ी प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। बुवाई के 20-25 दिन बाद पहली निराई करनी चाहिए और दूसरी निराई 35-40 दिन बाद करें। निराई से न केवल फसल को खरपतवार से मुक्ति मिलती है, बल्कि मिट्टी की जलधारण क्षमता भी बढ़ती है।
खरपतवार नियंत्रण:
खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए जैविक विधियाँ अपनाई जा सकती हैं, जैसे मल्चिंग या जैविक शाकनाशी का उपयोग। खरपतवार फसल से पोषक तत्वों और पानी की प्रतिस्पर्धा करता है, जिससे फसल की वृद्धि और उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

कोदो की निराई-गुड़ाई और खरपतवार नियंत्रण
7. कोदो कीट और रोग प्रबंधन
कोदो की फसल में कुछ प्रमुख कीट और रोगों का हमला हो सकता है। इनमें से मुख्य तना छेदक, पत्तियों का झुलसा और बालियों का सड़ना है। इनसे बचाव के लिए उचित फसल चक्र अपनाना और जैविक कीटनाशकों का प्रयोग करना चाहिए। जैविक कीटनाशकों, जैसे नीम का तेल, का उपयोग कीट और रोग नियंत्रण के लिए कारगर साबित होता है।
8. कटाई और उपज
कटाई का समय:
कोदो की फसल 90-100 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। जब पौधों की पत्तियाँ पीली पड़ने लगती हैं और बालियाँ भूरे रंग की हो जाती हैं, तो फसल कटाई के लिए तैयार होती है। फसल की कटाई समय पर करना अत्यंत आवश्यक होता है, ताकि अनाज के गिरने का खतरा न हो।
कटाई की विधि:
कोदो की कटाई हाथ से की जाती है। कटाई के बाद फसल को 2-3 दिनों तक धूप में सुखाया जाता है, ताकि अनाज को थ्रेसिंग करने में आसानी हो। इसके बाद, अनाज को थ्रेशर की सहायता से अलग किया जाता है।
उपज:
अच्छी खेती प्रबंधन और उचित देखभाल से प्रति हेक्टेयर 10-12 क्विंटल उपज प्राप्त की जा सकती है। कोदो की पैदावार पूरी तरह से खेती की तकनीक, जलवायु, और रोग नियंत्रण पर निर्भर करती है।
9. कोदो फसल का भंडारण
कटाई के बाद कोदो के अनाज को अच्छी तरह सूखा कर भंडारण किया जाना चाहिए। अनाज को जूट के बोरों में भरकर सुरक्षित और सूखी जगह पर रखा जाता है, ताकि वह लंबे समय तक खराब न हो। अनाज में नमी नहीं होनी चाहिए, अन्यथा वह सड़ सकता है या कीड़ों का शिकार हो सकता है।

कोदो फसल का भंडारण
10. कोदो के आर्थिक और स्वास्थ्य लाभ
आर्थिक लाभ:
कोदो की खेती से किसानों को अच्छी आर्थिक लाभ प्राप्त होता है, क्योंकि यह कम लागत वाली फसल है और कम पानी में भी अच्छी उपज देती है। बाजार में इसकी मांग धीरे-धीरे बढ़ रही है, विशेष रूप से स्वास्थ्य के प्रति जागरूक उपभोक्ताओं के बीच।
स्वास्थ्य लाभ:
कोदो एक अत्यधिक पौष्टिक अनाज है, जिसमें प्रोटीन, फाइबर, आयरन, और कैल्शियम की प्रचुर मात्रा होती है। यह मधुमेह के रोगियों के लिए भी लाभकारी होता है, क्योंकि इसका ग्लाइसेमिक इंडेक्स कम होता है। कोदो का नियमित सेवन वजन घटाने, हृदय रोगों की रोकथाम, और पाचन क्रिया में सुधार के लिए भी फायदेमंद माना जाता है।
निष्कर्ष:
कोदो की खेती किसानों के लिए एक अच्छी आय का स्रोत है, खासकर उन क्षेत्रों में जहाँ पानी की कमी होती है। सही तकनीकों और समय पर फसल प्रबंधन से इस फसल की पैदावार को बढ़ाया जा सकता है। जैविक खेती विधियों और पौष्टिक अनाजों की बढ़ती मांग के कारण कोदो की खेती का भविष्य उज्ज्वल दिखाई दे रहा है।
More Links –
Leave a Comment